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वि मृ॑ळी॒काय॑ ते॒ मनो॑ र॒थीरश्वं॒ न संदि॑तम्। गी॒र्भिर्व॑रुण सीमहि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi mṛḻīkāya te mano rathīr aśvaṁ na saṁditam | gīrbhir varuṇa sīmahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। मृ॒ळी॒काय॑। ते॒। मनः॑। र॒थीः। अश्व॑म्। न। सम्ऽदि॑तम्। गी॒भिः। व॒रु॒ण॒। सी॒म॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:25» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त अर्थ ही का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) जगदीश्वर ! हम लोग (रथीः) रथवाले के (संदितम्) रथ में जोड़े हुए (अश्वम्) घोड़े के (न) समान (मृळीकाय) उत्तम सुख के लिये (ते) आपके सम्बन्ध में (गीर्भिः) पवित्र वाणियों द्वारा (मनः) ज्ञान (विषीमहि) बाँधते हैं॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे भगवन् जगदीश्वर ! जैसे रथ के स्वामी का भृत्य घोड़े को चारों ओर से बाँधता है, वैसे ही हम लोग आपका जो वेदोक्त ज्ञान है, उसको अपनी बुद्धि के अनुसार मन में दृढ़ करते हैं॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते॥

अन्वय:

हे वरुण ! वयं रथीः संदितमश्वं न=इव मृळीकाय ते तव गीर्भिर्मनो विषीमहि॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) क्रियार्थे (मृळीकाय) उत्तमसुखाय अत्र मृडः कीकच्कङ्कणौ। (उणा०४.२५) अनेन कीकच्प्रत्ययः। (ते) तव (मनः) ज्ञानम् (रथीः) रथस्वामी अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति सोर्लोपो न। (अश्वम्) रथवोढारं वाजिनम् (न) इव (संदितम्) सम्यग्बलावखण्डितम् (गीर्भिः) संस्कृताभिर्वाणीभिः (वरुण) जगदीश्वर ! (सीमहि) हृदये प्रेम वा कारागृहे चोरादिकं बन्धयामः। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक् वर्णव्यत्ययेन दीर्घश्च॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे भगवन् ! यथा रथपतेर्भृत्योऽश्वं सर्वतो बध्नाति, तथैव वयं तव वेदस्थं विज्ञानं हृदये निश्चलीकुर्मः॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे भगवान जगदीश्वरा! जसे रथाच्या स्वामीचा नोकर घोड्यांना चहूकडून बंदिस्त करतो तसेच आम्ही तुझे वेदोक्त ज्ञान आपल्या बुद्धिनुसार मनात दृढ करतो. ॥ ३ ॥